मैंने उन्हें गुलाब देना चाहा,
वो मना कर दीं।
पता चला, वो खुद एक गुलाब हैं।
मैंने उन्हें अपनी पसंद की एक पेन ख़रीदकर दी,
वो मना कर दीं।
पता चला, वो एक बुलंद आवाज़ हैं, जिसे बहुत लोग लिख सकते हैं।
मैंने उन्हें अपनी पसंद की एक संबलपुरी साड़ी देना चाहा,
वो साफ़-साफ़ मना कर दीं।
पता चला, वो खुद एक संबलपुरी नोनी हैं।
फिर मैंने उनसे पूछा —
“सारी चीज़ों को क्यों मना कर रही हो? फिर तुम्हें क्या चाहिए?”
वो हल्के से मुस्कुराईं और बोलीं —
“मुझे बस तुम चाहिए... मेरी परछाईं की तरह।”
हम दोनों मुस्कुराए और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ चले।
~विष्णु