वो दौर भी कितना अच्छा था!

 वो दौर भी कितना अच्छा था,

जब हमारा CBCS चलता था।

वो भले ही हमारे ग्रुप में नहीं थे,

मगर उनकी मुस्कान,

हमारी तरफ खींच ही लाती थी।


हमने बातें कीं, नाम पूछा,

वो  मुस्कुराए — “हाँ, यही मेरा नाम है।”

हमें लगा वो North-East से हैं,

जैसे लोग हमें देख के

नागालैंड का समझ लेते हैं।


कैंपस की राहों में,

हम बातें करते, हँसते,

वो जब हमें नाम से पुकारते —

तो जैसे भीतर एक नई जान उतर आती थी।


चाहते थे — बस यूँ ही बात करते रहें,

मगर दीवार पर टँगी Boundary और Consent की सूचना,

हमारे कदमों को थाम लेती थी।

खुद को समझाते —

कहीं उन्हें बुरा न लगे

हमारे शब्दों की नर्मी, हमारी चाहत का असर।


फिर एक दिन,

आया उनका WhatsApp मैसेज,

हमारा दिल जैसे खिल गया!

आज भी दिल चाहता है,

वो मुस्कान फिर से हमारे सामने हो —

वो हँसी, जो हमारे चेहरे पर

अपने आप मुस्कान ले आती थी।


वक्त का रुख कुछ और था —

वो चली गई कहीं और,

और हम रह गए यहीं,

अपनी यादों के साथ, अकेले।


फिर भी, चाहत अब भी वही है —

उस मुस्कान की,

जो कभी हमें मुस्कुराना सिखा गई थी। ~विष्णु नारायण महानंद

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